आमतौर पर कहा जाता है कि वनस्पतियों में जितना दम होता है उतना अंग्रेजी दवाओं में कहां? कहना सही भी है, यदि हम भारतीय इस प्राकृतिक उपहार की ताकत को पहचान लें तो हर रोग को मिटाने का विकल्प आसानी से खोजा जा सकता है। लेकिन तब, जब यकीन हो। जानकारियां लेने और देने मात्र से नहीं। जो खेतों-मैदानों और खाइयों से उठे पौधे हों, जंगलों में मिले तत्व हों, बडे़ फायदे तो यूज करने पर ही मुमकिन हैं। जैसा कि हमारा विषय था आदमी की कमजोरियां हिंदू धर्म में दो तरह से परिभाषित होती हैं, एक तो पिछले जन्मों का किया भुगतना, दूसरा खुद की कमियां या खानपान की मजबूरी। अक्सर लोग मान्यताओं को नहीं मानते, लेकिन प्वांइंट पकडें तो हर किसी का शरीर एक जैसा नहीं होता। इनके लिए वानस्पतिक दवाएं अलग-अलग तरह से प्रभावी मानी जाती हैं। गौर करें तो यहां दिए लिसोडे, गेंहु का मामा, गूलल तीन ऐसे खाद्य उपहार हैं, जो बॉडी़ की समस्याओं में रामबाण का कार्य करते हैं। स्लाइड बताएंगी कि क्या हैं इनकी खासियत, कैसे लेें अपनी समस्या खत्म करने को प्रयोग में और कहां मिलती हैं ये तीनों आम औषधियां। पिक्स करें क्लिक, जानें ब्यौरा …
1- बहुवार या लसोड़ाः राजस्थान में लेसवा और गुन्दा कहा जाने वाला Cordia myxa एक वृक्ष है जो भारतीय उपमहाद्वीप, चीन एवं विश्व के अनेक भागों में पाया जाता है। इसे हिन्दी में ‘गोंदी’ और ‘निसोरा’ और लिसोड़ा भी कहते हैं। इसके फल सुपारी के बराबर होते हैं। कच्चा लसोड़ा का साग और आचार भी बनाया जाता है। पके हुए लसोड़े मीठे होते हैं तथा इसके अन्दर गोंद की तरह चिकना और मीठा रस होता है, जो शरीर को मोटा बनाता है। आप खाए बिना न रह पाएंगे। आपको पता न हो तो बता दें कि लसोड़े के पेड़ बहुत बड़े होते हैं इसके पत्ते चिकने होते हैं। दक्षिण, गुजरात और राजपूताना में लोग पान की जगह लसोड़े का उपयोग कर लेते हैं। लसोड़ा में पान की तरह ही स्वाद होता है। इसके पेड़ की तीन से चार जातियां होती है पर मुख्य दो हैं जिन्हें लमेड़ा और लसोड़ा कहते हैं। छोटे और बड़े लसोडे़ के नाम से भी यह काफी प्रसिद्ध है। लसोड़ा की लकड़ी बड़ी चिकनी और मजबूत होती है। इमारती काम के लिए इसके तख्ते बनाये जाते हैं और बन्दूक के कुन्दे में भी इसका प्रयोग होता है। इसके साथ ही अन्य कई उपयोगी वस्तुएं बनायी जाती हैं। उत्तर प्रदेश के छाता में लिसोडे़ के काफी वृक्ष हैं जिनसे यहां के लोग उनसे अचार, फल और छाले ठीक कराने का काम निकालते हैं। अब आगे का फोटो क्लिक कर जानिए बॉडी बनाने में क्या काम करेगा ये –
2-सूखेपन और कफ जनित रोगों को करता है भस्मः जी हां, हो सकता है आपने लिसोड़ा की सब्जी या अचार खाया होगा लेकिन यह भी जान लें की यह वनस्पति कफ जनित रोगों के लिए महा औषधि है। यह दो प्रकार का होता है, छोटा और बड़ा लिसोडा। गुण धर्मं दोनों के एक सामान है, भाषा भेद की दृष्टि से यह भिन्न-भिन्न नामों से जाना जाता है हिंदी और मारवाड़ी में लिसोड़ा, मराठी और गुजराती में इसे बरगुन्द, बंगाली में बहंवार, तेलगु में चित्रनक्केरू, तमिल में नारिविली, पंजाबी में लसूडा, फारसी में सपिस्तां व अंग्रेजी में इसे सेबेस्टन नाम से जाना जाता है। वसंत ऋतू में इसमे फूल आते है और ग्रीष्म ऋतू के अंत में फल पक जाते है । यह मधुर-कसैला, शीतल, विषनाशक, कृमि नाशक, पाचक, मूत्रल, जठराग्नि प्रदीपक, अतिसार व सब प्रकार दर्द दूर करने वाला, कफ निकालने वाला होता है. इसकी छाल और फल का काढ़ा जमे व सूखे कफ को ढीला करके निकाल देता है। सुखी खांसी ठीक करने के लिए यह बहुत ही उपयोगी होता है। जुकाम खांसी ठीक करने के लिए इसकी छाल का काढ़ा उपयोगी होता है. इसके फल का काढ़ा बना कर पीने से छाती में जमा हुआ सुखा कफ पिघलकर खांसी के साथ बाहर निकल जाता है इसलिए इसे श्लेष्मान्तक (संस्कृत में) भी कहा जाता है। अब आप क्लिक करें अगला पिक और जानते हैं पेट को कैसे देता है ये दम –
3- पाचन तंत्र को करे दुरूस्तः इसके कोमल पत्ते पीस कर खाने से पतले दस्त (अतिसार) लगना बंद होकर पाचन तंत्र में सुधार हो आता है. उपरोक्त गुणों के साथ साथ इसकी छाल को पानी में घिस कर पीस कर लेप करने से खुजली नष्ट होती है. इसके फल के लुआव में एक चुटकी मिश्री मिलाकर एक कप पानी में घोल कर पीने से पेशाब की जलन आदि मूत्र रोग ठीक होते है। कफ जनित रोगों के लिए जिस प्रकार “लिसोड़ा” गुणकारी है यह तो आप जानते होंगे। उसी प्रकार योग चिकित्सा पद्धति के अंतर्गत सूर्यभेदन प्राणायाम सभी प्रकार के कफ रोगों का समूल नाश करता है। यह प्राणायाम अत्यंत गुणकारी है यह कफ विकारों को तो नष्ट करता ही है साथ ही साथ वात के प्रकोप को नष्ट करते हुए रक्त विकार को दूर करते हुए त्वचा रोग को ठीक करता है। आपको इस प्राणायाम का अभ्यास शीतल वातावरण में करना चाहिए। वर्षा काल में सूर्योदय से पहले या सायंकाल कर सकते हैं। पित्त प्रधान और उष्ण प्रकृति के व्यक्तियों को ग्रीष्म ऋतु और उष्ण स्थान पर सूर्य भेदन प्राणायाम का अभ्यास नहीं करना चाहिए, कई हिंदी वेबसाइटस में इसका रहस्य बताया भी गया है। क्लिक करें अब अगले पिक पर, जानिए कैसे बनती हैं दवाएं…
4-लसोड़े के पारंपरिक औषधीय उपयोगः मथुरा देहात के मोहनश्याम बताते हैं कि लसोड़े की छाल को पानी में घिसकर अगर अतिसार से पीड़ित व्यक्ति को पिलाया जाये तो लाभ मिलता है। इसी प्रकार अगर छाल को अधिक मात्रा में घिसकर इसे उबालकर इसका काढ़ा बनाकर सेवन किया जाये तो गले से सम्बंधित रोगों में आराम मिलता है। लसोड़े के बीजों को पीसकर दाद, खाज और खुजली वाले स्थानों पर लगाया जाए तो लाभ मिलता है। गुजरात के डांग आदिवासी लसोड़े के फलों को सुखाकर इसका चूर्ण बनाते है इसमें मैदा, बेसन और घी मिलाकर इसके लड्डू बनाते है। इनका मानना है की इन लड्डुओं का सेवन करने से शरीर को ताकत और स्फूर्ति मिलती है। लसोड़े की 200 ग्राम छाल को इतनी ही मात्रा में पानी मिलाकर उबाला जाये और जब यह एक चौथाई शेष बचे तो इस पानी से कुल्ले किये जाये तो इससे मसूड़ों की सूजन, दांत का दर्द और मुहँ के छालों में आराम मिलता है। इतना ही नहीं जनाब, लसोड़े की छाल के काढ़े को कपूर मिलाकर अगर इससे शरीर के सूजन वाले हिस्सों की मालिश की जाये तो आराम मिलता है। क्लिक करें अब अगले पिक पर, जानिए गेंहू का मामा…
5- प्राकृतिक परमाणु गेहूँ का ज्वाराः रक्त बनाने और शरीर को पुष्ट करने वाले इस वानस्पतिक पौधे के बारे में लगभग सब जानते हैं। गेहूँ का ज्वारा अर्थात गेहूँ के छोटे-छोटे पौधों की हरी-हरी पत्ती, जिसमे है शुद्ध रक्त बनाने की अद्भुत शक्ति। तभी तो इन ज्वारो के रस को “ग्रीन ब्लड” कहा गया है। इसे ग्रीन ब्लड कहने का एक कारणयह भी है कि रासायनिक संरचना पर ध्यानाकर्षण किया जाए तो गेहूँ के ज्वारे के रस और मानव मानव रुधिर दोनों का ही पी.एच. फैक्टर 7.4 ही है जिसके कारण इसके रस का सेवन करने से इसका रक्त में अभिशोषण शीघ्र हो जाता है, जिससे रक्ताल्पता(एनीमिया) और पीलिया(जांडिस)रोगी के लिए यह ईश्वर प्रदत्त अमृत हो जाता है. गेहूँ के ज्वारे के रस का नियमित सेवन और नाड़ी शोधन प्रणायाम से मानव शारीर के समस्त नाड़ियों का शोधन होकर मनुष्य समस्त प्रकार के रक्तविकारों से मुक्त हो जाता है. गेहूँ के ज्वारे में पर्याप्त मात्रा में क्लोरोफिल पाया जाता है जो तेजी से रक्त बनता है इसीलिए तो इसे प्राकृतिक परमाणु की संज्ञा भी दी गयी है. गेहूँ के पत्तियों के रस में विटामिन बी.सी. और ई प्रचुर मात्रा में पाया जाता है। अगली स्लाइड में ढेरों फायदे लेने के गुण समझें …
6- गेंहू का मामा कहते हैं गांवों में इसेः गेहूँ घास अर्थात “गेंहू का मामा”। इसके सेवन से कोष्ठबद्धता, एसिडिटी , गठिया, भगंदर, मधुमेह, बवासीर, खासी, दमा, नेत्ररोग,म्यूकस, उच्चरक्तचाप, वायु विकार इत्यादि में भी अप्रत्याशित लाभ होता है. इसके रस के सेवन से अपार शारीरिक शक्ति कि वृद्धि होती है तथा मूत्राशय कि पथरी के लिए तो यह रामबाण है। ये भी ग्रामीण ही ज्यादा यूज करते हैं। गेहूँ के ज्वारे से रस निकालते समय यह ध्यान रहे कि पत्तियों में से जड़ वाला सफेद हिस्सा काट कर फेंक दे. केवल हरे हिस्से का ही रस सेवन कर लेना ही विशेष लाभकारी होता है. रस निकालने के पहले ज्वारे को धो भी लेना चाहिए। यह ध्यान रहे कि जिस ज्वारे से रस निकाला जाय उसकी ऊंचाई अधिकतम पांच से छः इंच ही हो। क्लिक करें अब अगले पिक पर, जानिए गूलल क्यों है रामबाण…
7- गूलर कर देता है बीमारियों को ही गोलः गूलर अपनी उपयोगिता के कारण हमारे देश में एक पवित्र वृक्ष के रूप में जाना जाता है। गुण धर्म की दृष्टि से यदि देखा जाए तो यह कफ पित्त शामक, दाह प्रशमन, अस्थि संघानक तथा सोत, रक्त पित्त, प्रदर,प्रमेह,अर्श, गर्भाशय विकार आदि नाशक है. चिकित्सा की दृष्टि से गूलर की छाल, पत्ते, जड़, कच्चाफल व पक्का फल सभी उपयोगी है। गूलर का कच्चा फल कसैला व उदार के दाह का नाशक होता है, पके फल के सेवन और कप्पल भाति की क्रिया करने से कब्ज मिटता है। पकाफल मीठा, शीतल, रुचिकारक, पित्तशामक, श्रमकष्टहर, द्राह- तृष्णाशामक, पौष्टिक व कब्ज नाशक होता है। कुछ दिनों तक लगातार इसकी जड़ का अनुपातिक काढ़ा पीने से व योग के अंतर्गत आने वाले कपाल भाति की प्रक्रिया से मधुमेह पूरी तरह से नियंत्रित हो जाता है। क्लिक करें अब अगले पिक पर…
8- अलग-अलग भाषाअों से पहचानते हैं लोगः सम्पूर्ण भारत वर्ष में पाए जाने के कारण यह भिन्न भिन्न प्रदेशों में भाषा के अनुरूप भिन्न भिन्न नामों से जाना जाता है-महाराष्ट्र में तो ऐसा माना जाता है की गूलर के वृक्ष में भगवान् दत्तात्रेय का वास होता है। वैसे तो सम्पूर्ण भारत में इसे गुलर के नाम से जाना जाता है किन्तु संकृत में इसे उदुम्बर जन्नूफल, मराठी में उम्बर, गुजराती में उम्बरो,बंगला में यज्ञ डूम्बुरा, अंग्रेजी में क्लस्टर फिग आदि नामों से जाना जाता है। अब बचा है लास्ट का पिक, जानिए बवासीर का तोड़…
9-बवासीर में भी लाभकारी हैः ब्रजभूमि के देहाती डा़. सूरज पाल बताते हैं कि खुनी बवासीर में इसके पत्तों का रस लाभकारी होता है। गूलर का दूध शरीर से बाहर निकालने वाले विभिन्न स्रावों को नियंत्रित करता है। हाथ पैर की चमड़ी फटने से होने होने वाली पीड़ा कम करने के लिए गूलर के दूध का लेप करना लाभकारी सिद्ध हुआ है। मुँह में छाले, मसूढ़ों से खून आना आदि विकारों में इसकी छाल या पत्तों का काढ़ा बनाकर कुल्ली करने से विशेष लाभ होता है। ग्रीष्म ऋतु की गर्मी या अन्य जलन पैदा करने वाले विकारों एवं चेचक आदि में पके फल को पीसकर उसमे शक्कर मिलाकर उसका शर्बत बनाकर पीने से राहत मिलती है। इस प्रकार इसकी असंख्य उपयोगिताओं के कारण ही तो इसे पवित्र वृक्षों की श्रेणी में रखा गया है। एकाद बार तो आप भी खा लिया करें। जानकारी पर कमेंट जरूर करें, हमें भी तो लगे आपने क्या सोचा?
Give us your feedback on these articles. Share your acquaintances persons and text by mail and Provide Us your suggestions for improvements In The Site.