बीते 10 महीनों का औसत देखा जाए तो नई सरकार के आने के समय से उत्तरप्रदेश में दंगे—फसाद पर जितनी तेजी और प्रभावी ढंग से पुलिस की कार्रवाई हुई हैं, उससे एक बात तो साफ है कि अखिलेश के समय में सांप्रदायिक हिंसा के तिहरा सैकड़ा हो जाने के दौरान भी नही हुई। 2013 में मुजफ्फरनगर आैर आसपास के जिलों में हुई कायरना हरकतें सीधे-सीधे मंत्री व स्थानीय नेताओं की शह से हुई थीं। सैकड़ों परिवारों के घर-झोंपड़ी तबाह गए थे, रोजी-रोटी खो जाने पर उन्हें खाने को भी नहीं मिल पा रहा था।
वहीं, इसके इतर तमाम केसों के आरोपी बताए गए योगी आदित्यनाथ की सरकार को 1 साल भी पूरा नहीं हुआ कि पुलिस द्वारा 1200 से ज्यादा एनकाउंटर्स कर दिए गए। कासगंज मामले में भी कार्रवाई इतनी तेजी से हुई है कि 4,000 सिपाहियों ने बिना किसी रुकावट अभियान चलाकर 121 से ज्यादा आरोपी गिरफ्त में ले लिए। 20 साल के युवक चंदन के हत्यारे शकील व उसके दो अन्य भाएले भी दबोच लिए गए हैं। कल कासगंज में पुलिस की टीमों ने ताबड़तोड़ दबिशें दीं। आरोपियों ने दरवाजे अंदर से बंद कर लिए तो वो भी तोड़ दिए गए लेकिन भागने नहीं दिए। कम से कम 40 को शांतिभंग में हिरासत में लिया गया।
यदि सीएम योगी स्वयं, पीएम मोदी के गुजरात में मुख्यमंत्री काल को ध्यान में लें तो पाएंगे कि वर्ष 2002 के बाद से सांप्रदायिक दंगे हुए ही नहीं। यह कठोर प्रावधानों एवं कानून-व्यवस्था से ही संभव हो सकता है। हालांकि, यूपी में सपा का बीता कार्यकल इसी तरह के आपराधिक घटनाक्रम में बीता। NCRB की क्राइम रिपोर्ट से इस राज्य की हकीकत सामने आती है। देश में सर्वाधिक (16% से भी ज्यादा) हत्या के 4,889 मामले यूपी में दर्ज मिले। बीते 30 नंवबर को जारी आंकड़ों में यह भी बताया गया कि बलात्कार के 4,816 केसेज के साथ उप्र अकेले ही 2016 में देश का कुल 12.4% रहा था।
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